भोजन भजन और खजाना, इन तीनों का अलग ठिकाना

तन की सेवा शबरी की तरह करो- बाबा उमाकान्त जी महाराज

आंतरिक सेवा क्या होती है, बाहरी भक्ति में क्या किया जाता है?

ग्वालियर (म.प्र.)
निजधामवासी परम सन्त बाबा जयगुरुदेव जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 8 नवंबर 2022 प्रातः ग्वालियर (म. प्र.) में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश ने बताया की तन मन धन से सेवा कर के आदेश का पालन किया जाता है लेकिन यह दिखा करके नहीं बल्कि छुपा करके किया जाता है तो उसका ज्यादा फायदा होता है।

भोजन भजन और खजाना इन तीनों का अलग ठिकाना

रुपया-पैसा एकांत में रखते हैं कि कोई ले न जाए। भोजन भी एकांत में खाते हैं कि किसी की नजर न पड़ जाए। वरना नुकसान कर जाती है। जैसे कहते हो हमारा मकान, बेटा सुंदर था इसलिए नजर लग गई। बच्चे को काला टीका, मकान के ऊपर काली हंडिया, काला कपड़ा लगा देते हैं कि नजर न लगे। ऐसे ही (नामदान देते समय बताया गया) भजन भी छुपकर किया जाता है। इसलिए कहा गया भोजन भजन और खजाना इन तीनों का अलग ठिकाना।

तन की सेवा शबरी की तरह करो

बहुत से लोग कैसे तन की सेवा करते हैं? लोगों के उठने से पहले ही साफ सफाई करके बिल्कुल फिट कर दिया। शबरी छोटी भीलन जाति की और एक तरह से राक्षसी समान इतनी कुरुप थी कि देखने से भय लगे। संयम-नियम की गड़बड़ी से शारीरिक रूप-रंग पर प्रभाव पड़ता है। पर्दे में शबरी की शादी, विदाई हो गई। लड़का पैदल ही जंगल में लेकर जा रहा था तो शबरी के मुंह का पर्दा खुल गया, लड़के देखकर इतना डरा कि छोड़कर भाग गया। बेचारी जाए कहां जाए? भटक रही थी। एक महात्मा जी की कुटिया दिखी, गई। महात्माओं को रूप-रंग से कोई मतलब नहीं होता। वह तो अंतर का भाव, प्रेम और जीवात्मा को देखते हैं जो सबके अंदर एक ही जैसी होती है। उसकी दीनता, दुख, धार्मिक भावनाओं को देख कर वहीं आश्रय दे दिया। छोटी जाति से कोई सेवा करवाना, मुंह देखना पसंद नहीं करता था। लेकिन उसके अंदर सेवा भावना थी, सेवा करती थी। रात को 2:30 बजे उठ कर जिस रास्ते से साधु महात्मा धार्मिक लोग स्नान करने के लिए नदी में जाते थे, उसे रात को साफ करके चली आती थी। दिखावा नहीं करती थी। किसी को पता नहीं चलता था तो ऐसी सेवा का ज्यादा लाभ, फल मिला। उस समय के महापुरुष ने उसकी सेवा कबूल की, दर्शन दिए और बेर खाए। इस तरह से बाहरी सेवा होती है।

आंतरिक सेवा क्या होती है

जीवात्मा की सेवा आंतरिक सेवा है। जैसे शरीर की सेवा करते हो नहलाना-धुलाना तेल-मालिश खिलाना-पिलाना आराम करवाना आदि ऐसे ही आत्मा की सेवा भी होती है। सेवा यानी किसी को खुराक देना। शरीर को उसकी खुराक जैसे अनाज दूध घी फल आदि देना शरीर की सेवा है। उससे शरीर चलता रहता, हष्ट-पुष्ट बना रहता, काम में लगा रहता है। तो आत्मा का भोजन क्या है? शब्द है जिससे यह सारा संसार बना, अंड पिंड ब्रह्माण्ड, देवी-देवता बने। शब्द का आहार कराओ। शब्द का भोजन कब मिलेगा? जब थोड़े समय के लिए दुनिया की तरफ से ध्यान को हटाकर शब्द को पकड़ने की कोशिश करोगे, भजन करोगे। और जब शब्द पकड़ में आ जाएगा तब जीवात्मा आगे बढ़ जाएगी। जीवात्मा के सामने लगा पर्दा, गंदगी हट जाएगी और रास्ता मिल जाएगा।

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