भागवत कथा वह अमृत है, जिसके पान से भय,भुख व संताप सब कुछ स्वतःनष्ट हो जाता है-पं राघवेंद्र शास्त्री

भागवत कथा वह अमृत है, जिसके पान से भय,भुख व संताप सब कुछ स्वतःनष्ट हो जाता है-पं राघवेंद्र शास्त्री।

ज्ञानेश्वर बर्नवाल देवरिया, युपी फाइट टाइम्स न्यूज़

देवरिया जिले के वीजापुर झंगटौर में चल रहे श्रीमद्भागवत कथा के दूसरे दिन कथावाचक केटलरल से पधारे पं0 राघवेंद्र शास्त्री ने कहा कि भागवत कथा वह अमृत है, जिसके पान से भय, भूख, रोग व संताप सब कुछ स्वतः ही नष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति को मन, बुद्धि, चित एकाग्र कर अपने आप को ईश्वर के चरणों में समर्पित करते हुए भागवत कथा को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करने से जन्म जन्मांतर के पापों का नाश हो जाता है।
कथा वाचक राघवेंद्र शास्त्री ने बताया युधिष्ठिर ने अपने जीवन में सिर्फ एक गलती की थी, जिसके लिए उनको थोड़ी देर के लिए नरक जाना पड़ा था।
देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि- तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था। द्रोणाचार्य के पूछने पर तुमने कहा था “अश्वत्थामा मारा गया “। इसी के परिणाम स्वरूप तुम्हें भी छल से ही कुछ देर तक नरक के दर्शन पड़े।
उन्होंने कहा कि महाराज उत्तानपाद की दो रानियाँ थी, उनकी बड़ी रानी का नाम सुनीति तथा छोटी रानी का नाम सुरुचि था। सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नाम के पुत्र पैदा हुए। महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे और सुनीति प्राय: उपेक्षित रहती थी।
इसलिए वह सांसारिकता से विरक्त होकर अपना अधिक से अधिक समय भगवान के भजन पूजन में व्यतीत करती थी। एक दिन बड़ी रानी का पुत्र ध्रुव अपने पिता महाराज उत्तानपाद की गोद में बैठ गया। यह देख सुरुचि उसे खींचते हुए गोद से उतार देती है और फटकारते हुए कहती है – ‘यह गोद और राजा का सिंहासन मेरे पुत्र उत्तम का है। तुम्हें यह पद प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना करके मेरे गर्भ से उत्पन्न होना पड़ेगा।’
ध्रुव सुरुचि के इस व्यवहार से अत्यन्त दु:खी होकर रोते हुए अपनी माँ सुनीति के पास आते हैं और सब बात कह सुनाते हैं। अपनी सौत के व्यवहार के विषय में जानकर सुनीति के मन में भी अत्यधिक पीड़ा होती है। वह ध्रुव को समझाते हुए कहती है – ‘पुत्र ! तुम्हारी विमाता ने क्रोध के आवेश में भी ठीक ही कहा है। भगवान ही तुम्हें पिता का सिंहासन अथवा उससे भी श्रेष्ठ पद देने में समर्थ हैं। अत: तुम्हें उनकी ही आराधना करनी चाहिए।’
माता के वचनों पर विश्वास करके पाँच वर्ष का बालक ध्रुव वन की ओर चल पड़ा। मार्ग में उसे देवर्षि नारद मिले। उन्होंने ध्रुव को अनेक प्रकार से समझाकर घर लौटाने का प्रयास किया किंतु वे उसे वापस भेजने में असफल रहे।
उक्त अवसर पर भगवानदास शास्त्री जी महाराज, यजमान विन्ध्वासिनी देवी,कृष्णा कांत मिश्र,भूपेंद्र मिश्र,
अनिल मिश्र,अशोक मिश्र,सुनील मिश्र,अजय दुबे वत्स,बृजेश दुबे,राकेश दुबे,मुन्ना मिश्र,परवीन,आदर्श आदि उपस्थित रहे।

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